Thursday, March 15, 2012

नाजुक रिश्ते

रिश्ते है नए ज़माने के ये छूटने लगे है
अहम् की दीवारों से टकराकर टूटने लगे है

झगडके गले लगना, ये बचपन के रिवाज़ थे
आजकल तो दिलों में शिकवे बेहिसाब है

अपनों को अपना कहने वाले पल में पराया कर देते है
ज़िन्दगी में कई रिश्ते हम यू ही ज़ाया कर देते है

सहेज के तो घर में कांच के बर्तन रखते है
रिश्ते तो वो ताकत है जिसकी हम लोहे से तुलना करते है

लोहा भी मिलावटी टूट के बिखरने लगा है
आजकल तो गैरों से ज्यादा अपनों से डर लगने लगा है

3 comments:

sukhda said...

apno ne jab jab thukraya hai, tabhi parayo ka mol samajh aaya hai :)

Beyond said...

apno ke zakhm bhar nahi paate, parayo ko apna kar nahi paate

Vishal Raj said...

nice one !!